20 सितम्बर 2010 को ’विक्टोरियन मल्टीकल्चरल कमीशन’ की ओर से प्रोफेसर डेविड क्रेस्टर द्वारा दिनेश जी श्रीवास्तव को उत्कृष्ट व्यक्तिगत समाज सेवा का पुरस्कार दिया गया।
यह 1983 की बात है जब दिनेश जी श्रीवास्तव ने यहाँ आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य में लोबी बना कर स्कूलों में हिन्दी-कक्षा की मांग की। यह मांग पूरी होना कुछ आसान नहीं था क्योंकि तब से अब तक यह गहरी समस्या रही है कि यहाँ की सरकार हिन्दी के महत्व को किस प्रकार समझे जब कि अधिकांश भारतीय अपने बेटे-बेटियों को हिन्दी कक्षा में भेजने से ही कतराते हैं । ऐसी मांग किस आधार पर की जाय? बिना हिम्मत हारे कौशीश करते रहने का परिणाम यह हुआ कि तीन वर्ष बाद याने 1986 में हिन्दी कक्षा का श्रीगणेश हुआ। फिर एक से तीन और तीन से आठ केन्द्रों में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी।
इसके बाद उन्होने लगभग दस वर्षों तक अथक परिश्रम से यहाँ की हाई स्कूल परीक्षा में मान्यता दिलवाई तथा दूसरे राज्यों में 7 वर्षों बाद याने 1993 में मान्यता मिली। अगले वर्ष 12वी कक्षा के विद्यार्थियों के लिये विक्टोरिया राज्य में पहली बार परीक्षा हुई। आपने यहाँ हिन्दी कक्षाओं के पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जिसे विक्टोरिया बोर्ड ने प्रकाशित करवाया।
दिनेश जी को पता चला कि यहाँ विदेश में प्राप्त योग्यता को समकक्ष मान्यता नहीं दी जाती इस कारण से बी. एड. की उनकी उपाधि को स्नातकोत्तर डिप्लोमा के समकक्ष समझा गया। अत: अध्ययन करते करते उन्होने एम. एड. पूरा कर अमेरिका से पी एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।
आपके हिन्दी व अँगरेज़ी में लगभग 40 आलेख प्रकाशित हो चुके है। आपकी एक हिन्दी पुस्तक “रॉकेट, उपग्रह और अंतरिक्ष” वैज्ञानिक जगत में बहुत चर्चित हुई। आपने ’साउथ एशिया टाइम्स’ द्वारा “आस्ट्रेलिया में समकालिन हिन्दी” दो भागों में प्रकाशित करवाई।
कुछ साथियों से मिल कर दिनेश जी ने यहाँ हिन्दी भाषा के प्रचार के लिये ’हिन्दी-निकेतन’ की स्थापना की तथा कुछ वर्षों तक अध्यक्ष पद संभाला। हिन्दी में 12 वी कक्षा के उत्तिर्ण छात्रों को पुरस्कार देने के लिये VCE हिन्दी एवार्ड फ़न्कशन की स्थापना भी की । श्रीमति सुधा जोशी के साथ मिल कर ’देवनागरी’ पत्रिका निकाली जो पैसों का अभाव होते हुये भी पांच वर्षों तक चली।
रेडियो प्रसारण से ले कर अनुवाद आदि सभी कार्य करने में दिनेश जी दिन भर जुटे रहते। अस्वस्थता के बावजूद आप हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय और समर्पित रहे हैं। “साउथ एशिया टाइम्स” की हिन्दी-पूरक “हिदी –पुष्प” की आपने स्थापना की व संपादन कार्य भी कर रहे हैं। आपको 2009 में भारतीय विद्या भवन सिडनी द्वारा हिन्दी सेवा के लिये एवार्ड दिया गया और इसी वर्ष आपको “आस्ट्रेलियन ओफ द इयर” के लिये मनोनित किया गया। उनसे कुछ प्रश्नोत्तर :
विदेश में रहने वालों के लिये क्या आप हिन्दी-ज्ञान आवश्यक समझते हैं?
आवश्यक नहीं तो वांछनीय अवश्य मानता हूँ। इसके कई कारण है। हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने भाषाओँ में तीसरे स्थान पर है। यदि आप विश्व की जनसंख्या के एक बड़े भाग से सम्पर्क बनाये रखना चाहते है तो हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है। भारत की बढ़ती हुई आर्थिंक शक्ति को देखते हुए विश्व के अधिकांश देश, जिन में ऑस्ट्रेलिया भी शामिल है, भारत की आर्थिक समृद्धि का लाभ उठाना चाहते हैं। भारत के एक अरब से अधिक लोगों में से 40 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि आप उनके साथ व्यापार करना चाहते हैं तो हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत लाभप्रद होगा। स्मरणीय है कि भारत की केवल 11 प्रतिशत जनता अंग्रेजी बोलती है और अन्य सभी भाषाओँ के बोलने वालों की संख्या 8 प्रतिशत से भी कम है। हिन्दी बोलने वाले केवल भारत में ही नहीं सीमित हैं। इन सबसे सम्पर्क करने और व्यापार करने में हिन्दी का ज्ञान लाभप्रद होगा।
इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक, साहित्यिक व अध्यात्मिक कारणों से भी हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है। हिन्दी फ़िल्में कई देशों में अहिन्दी भाषी लोगों के बीच भी लोकप्रिय हैं। भारतीय संगीत, नृत्य, चित्रकला, मूर्ति कला का उपयोगी है। हिन्दी साहित्य भी बहुत धनी है। इसके ज्ञान से वंचित रहना एक बड़ी संपत्ति से हाथ धोना है। अध्यात्मिक क्षेत्र में योग-ध्यान, मनन-चिंतन, भारतीय दर्शन, आयुर्वेद आदि में पश्चिम के विकसित देशों में जिस प्रकार लोकप्रिय हो रहा है, उसको देखते हुए भी, हिन्दी का ज्ञान वांछनीय है।
क्यों? जब कि भारत में ही हिन्दी को हेय द्रष्टि से देखा जाता है और अँगरेज़ी में बात करने में शान समझी जाती है तो आप प्रवासी भारतीयों से यह उम्मीद क्यों रखते हैं कि वे आपस में अपनी मातृभाषा में बातचीत करें?
यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के 61 वर्षों पश्चात भी हम अंग्रेजी की गुलामी नहीं भूल पाये हैं। गांधी जी, स्वयं एक गुजराती थे परंतु स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए आन्दोलन चलाया, जिस में अनेक अहिन्दी भाषियों ने उनका साथ दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने पर ज़ोर दिया क्योंकि वह जानते थे कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो देश को एक सूत्र में बाँध सकती है। ठीक ही कहा है यदि किसीके पिता दूसरा विवाह कर के सौतेली माँ ले आयें तो क्या वह अपनी असली माँ को भूल जायेगा?
विश्व भर में केवल भारत ही एक ऐसा देश होगा, जहाँ लोग अपनी मातृभाषा में बातचीत करने में अपनी तौहीन समझते हों। विदेशों में रहने वाले अधिकांश भारतीय अपने देश को नहीं भूल पाते हैं और अपने बच्चों में भारतीय संस्कृति बनाये रखना चाहते हैं परंतु वे भूल जाते हैं कि भाषा और संस्कृति का गहरा सम्बन्ध है। यदि वे अपनी संस्कृति बनाये रखना चाहते हैं तो उन्हें अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा में शिक्षित करना होगा। इसके लिए पहला क़दम होगा अपने परिवार में तथा अपने मित्रों के साथ आपस में अपनी मातृभाषा में बातचीत करना।
यह धारणा भारतीयों में प्रचलित है कि अँगरेज़ी के ज्ञान से अपने व्यवसाय में आगे बड़ा जा सकता है और यहाँ के समाज में घुलमिल कर रहा जा सकता है। यही नहीं वे सोंचते हैं कि साहित्य में भी प्रतिभावान साहित्यकार क्यों न विक्रम सेठ और सलमान रशदी की तरह अंगरेज़ी में ही पारंगत हो कर इस भाषा में झंडे गाड़ें ? समझा जाता है कि प्रवासी कवि, लेखक और साहित्यकार विश्व की बात छोड़िये, भारत में भी प्रसिद्ध नहीं हो पाते।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, भारत में भारतीय भाषाओँ में तकनीकी शब्दों की शब्दावली बनाये जाने का काम शुरू हुआ था और कुछ शिक्षा संस्थाओं में इन भाषाओँ में अंग्रेजी ज्ञान को तरज़ीह दी जाती रही। विश्वविदयालय स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान इतना आवश्यक हो गया है कि हर वर्ष अंग्रेजी-ज्ञान की कमी के कारण कई मेधावी छात्र-छात्राओं के आत्म-हत्या करने के समाचार मिलते हैं।11 प्रतिशत अंग्रेजी भाषियों के लिए हम 40 प्रतिशत हिन्दी-भाषियों का बलिदान करने को तैयार हैं यह कैसी विडम्बना है? यह सर्वविदित तथ्य है कि विदेशी भाषा में शिक्षा प्रदान किये जाने के स्थान पर मातृभाषा द्वारा शिक्षा प्रदान किये जाने पर विद्यार्थीगण जल्दी सीखते हैं और मौलिकता का अधिक अच्छा विकास होता है। जो भारतीय अपने देश में रह कर जीवन-यापन करना चाहते हैं, उनके ऊपर अंग्रेजी थोपना कहाँ तक उचित है?
मुझे अंग्रेजी अथवा अन्य भाषाओँ के सीखने पर कोई आपत्ति नहीं है परंतु यह अपनी मातृभाषा के स्थान पर नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी-भाषी देशों में रहने वाले भारतीयों के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है परंतु इसके लिए उन्हें अपनी मातृभाषा का त्याग करना आवश्यक नहीं है। यह बात तो सभी जानते हैं कि विदेशी भाषा कि तुलना में मातृभाषा में विचार प्रकट करना अधिक आसान होता है और साहित्य में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक था। परंतु यदि किसी व्यक्ति में लेखन प्रतिभा है और अंग्रेजी पर अच्छा अधिकार है और वह सलमान रुश्दी या विक्रम सेठ बनना चाहता है तो उसे मेरी शुभकामनायें । हाँ यह ज़रूर याद रखें हर लेखक शीर्ष स्थान पर पहुँचने के सपने तो देख सकता है पर वहाँ पहुंचना सबके बस कि बात नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि ‘आधी छोड़ पूरी पर धावे, आधी मिले न पूरी पावे’। एक बात और नोट करने लायक है, जिन लेखकों का आपने ज़िक्र किया है, वे अंग्रेजी भाषी देशों में लंबे समय से रह रहे हैं। ऐसी स्थिति में बहुधा दैनिक जीवन में अपनी मातृभाषा के प्रयोग न किये जाने के कारण ऐसे लोगों की दक्षता अपनी भाषा में घट जाती है।
प्रवासी हिन्दी-लेखकों की बात करें तो अब इंटरनेट से स्थीति बदल रही है । साथ ही भारत से बाहर के लेखक अपनी पुस्तकें भारत में ही छपवाते हैं अत: प्रवासी लेखकों को अनदेखा करना संभव नहीं है।
आपको हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये किन किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
हिन्दी के प्रचार-प्रसार में मुझे दो कठिनाइयों का विशेष रूप से सामना करना पड़ा। एक तो संसाधनों और हिन्दी-सेवक कार्यकर्ताओं की कमी और दूसरी ऑस्ट्रेलिया में बसे अधिकांश भारतीयों की हिन्दी के प्रति अनास्था। ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले अधिकांश भारतीय यह सोचते हैं कि इस अंग्रेजी भाषी देश में अंग्रेजी के अतिरिक्त कोई और भाषा सीखने की कोई आवश्यकता नहीं है और सीखना भी हो तो फ़्रेंच या जर्मन सीखो, हिन्दी सीखने से क्या फ़ायदा? 1971 में जब मैं ऑस्ट्रेलिया आया तो पहले एक-दो वर्ष तो मैं हिन्दी की एक भी पुस्तक देखने को तरस गया। उसके बाद मुझे ऐसा लगा जैसे बहुत दिनों के प्यासे को पानी मिल गया हो। ‘सेंट अल्बांस’ पुस्तकालय में हिन्दी संग्रह की शुरुआत की गयी। पुस्तकालय भी कुछ हिन्दी पुस्तकें और पत्रिकाएँ मंगाने लगा। परंतु जब भारतीयों ने उन पुस्तकों का उपयोग ही नहीं किया तो कुछ समय पश्चात, स्थान की कमी के कारण वे पुस्तकें, बाहर फेंक दी गयीं। बाद में कुछ हिन्दी-प्रेमियों के साथ ‘हिन्दी-निकेतन’ की स्थापना की और ‘कोबर्ग-पुस्तकालय’ में हिन्दी संग्रह स्थापित किया गया। परंतु वहाँ भी पुस्तकों के अनुपयोग की समस्या आई और मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास दो-दो डालर में बेच दिए गये। गनीमत है कि वहाँ पहले से छोटा ही सही, परंतु हिन्दी-संग्रह विद्यमान है।
जब मैं ऑस्ट्रेलिया आया तो यहाँ बच्चों को हिन्दी सिखाने का कोई प्रबंध नहीं था। अपने बच्चों को तो मैं दिल्ली के ‘केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय’ के पत्राचार कार्यक्रम द्वारा शिक्षा दिलवाई परंतु यह कार्यक्रम भारत के अहिन्दी वयस्क सरकारी अधिकारियों के लिए तैयार किया गया था और बच्चों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं था। इसलिए मैंने विक्टोरिया की सरकार से माँग की कि बच्चों को हिन्दी सिखाने का प्रबंध किया जाए। कई वर्षों के परिश्रम के पश्चात 1986 में पहली बार विक्टोरिया में पहली हिन्दी कक्षा ब्रंज्विक में खोली गई। पर हर वर्ष यही डर लगा रहता था कि कहीं विद्यार्थियों कि संख्या कम होने के कारण कक्षा बंद न हो जाए और एकाध बार ऐसा हुआ भी जब हिन्दी अध्यापक स्वर्गीय डॉ रमा शंकर पाण्डेय जी मुझे बताया कि प्रधानाध्यापक ने विद्यार्थियों कि संख्या कम हो जाने के कारण हिन्दी कक्षा बंद हो जाने का आदेश दिया है।
ऐसी स्थिति में हमें प्रधानाध्यापक से हिन्दी कक्षा खुली रहने की अपील करनी पड़ती थी और नए विद्यार्थीगण ढूँढ कर लाने पड़ते थे जिसके लिए हम लोग होली-दीवाली अदि उत्सवों पर स्टाल लगा कर लोगों को हिन्दी कक्षा के बारे में बताते थे और विद्यार्थियों के माता-पिताओं से अनुरोध करते थे कि वे अपने बच्चों को हिन्दी कक्षा में पढ़ने के लिये भेजें। लगभग दस वर्षों के सतत प्रयत्नों के पश्चात, हिन्दी को पहली बार 1993 में 11 वीं तथा 12 वीं कक्षाओं में एक विषय के रूप में मान्यता प्रदान की गयी। इसके पश्चात, हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि होती गयी और 2012 में आज विक्टोरिया में हिन्दी-शिक्षा के आठ केन्द्र चल रहे हैं। 2012 ऑस्ट्रेलिया की केन्द्रीय सरकार ने हिन्दी को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने की स्वीकृति दे दी है- यह बहुत प्रसन्नता की बात है परंतु पूरे राष्ट्र के लिये प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालयों के लिये हिन्दी का पाठ्यक्रम व पाठ्यसामग्री तैयार करना, हिन्दी-शिक्षकों का प्रशिक्षण जैसी अनेक समस्याएँ हैं जिन से अभी निबटना बाकी है।
1990 के दशक में, दो वर्ष मैंने एस.बी.एस. रेडियो द्वारा प्रसारित हिन्दी कार्यक्रम के संयोजन का भार भी सम्भाला। उस समय हिन्दी कार्यक्रम केवल आधे घंटे का बृहस्पतिवार को हुआ करता था। जया शर्मा मेरी सहयोगी थीं। हम लोगों ने मिल कर काफ़ी कोशिश की इस कार्यक्रम का समय बढ़ाया जाए और इस कार्यक्रम को अधिकतम लोगों तक पहुँचाया जाये। प्रसन्नता की बात है कि यह कार्यक्रम अब राष्ट्रीय स्तर पर सप्ताह में तीन दिन प्रसारित होता है और एस.बी.एस. टेलिविज़न पर भारत के एन.डी.टी.वी. द्वारा प्रसारित हिन्दी समाचार भी देखे जा सकते हैं।
संक्षेप में, हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बहुत कठिनाइयाँ आती रही हैं परंतु उपलब्धियाँ भी कम नहीं हैं। आवश्यकता है अपने उद्देश्य पर डटे रहने की। हाल में भारत से आ कर ऑस्ट्रेलिया बसने वाले लोगों में काफ़ी वृद्धि हुई है परंतु उसके अनुपात में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में बहुत कम वृद्धि हुई है। इन लोगों को हिन्दी के महत्व के बारे में समझाना आवश्यक तो है पर आसान नहीं है।
2012 में विक्टोरिया की एक प्राथमिक पाठशाला ने अपने स्कूल के सभी 350 विद्यार्थियों को हिन्दी सिखाने का निश्चय किया है। अभी तक स्कूली स्तर पर यहाँ हिन्दी पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी भारतीय मूल के रहे हैं। ऑस्ट्रेलियाई विद्यार्थियों को जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी अथवा अन्य कोई भाषा है –नई कठिनाइयाँ तथा चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है।
हरिहर झा मेलबोर्न, आस्ट्रेलिया
[email protected]
यह 1983 की बात है जब दिनेश जी श्रीवास्तव ने यहाँ आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य में लोबी बना कर स्कूलों में हिन्दी-कक्षा की मांग की। यह मांग पूरी होना कुछ आसान नहीं था क्योंकि तब से अब तक यह गहरी समस्या रही है कि यहाँ की सरकार हिन्दी के महत्व को किस प्रकार समझे जब कि अधिकांश भारतीय अपने बेटे-बेटियों को हिन्दी कक्षा में भेजने से ही कतराते हैं । ऐसी मांग किस आधार पर की जाय? बिना हिम्मत हारे कौशीश करते रहने का परिणाम यह हुआ कि तीन वर्ष बाद याने 1986 में हिन्दी कक्षा का श्रीगणेश हुआ। फिर एक से तीन और तीन से आठ केन्द्रों में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी।
इसके बाद उन्होने लगभग दस वर्षों तक अथक परिश्रम से यहाँ की हाई स्कूल परीक्षा में मान्यता दिलवाई तथा दूसरे राज्यों में 7 वर्षों बाद याने 1993 में मान्यता मिली। अगले वर्ष 12वी कक्षा के विद्यार्थियों के लिये विक्टोरिया राज्य में पहली बार परीक्षा हुई। आपने यहाँ हिन्दी कक्षाओं के पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जिसे विक्टोरिया बोर्ड ने प्रकाशित करवाया।
दिनेश जी को पता चला कि यहाँ विदेश में प्राप्त योग्यता को समकक्ष मान्यता नहीं दी जाती इस कारण से बी. एड. की उनकी उपाधि को स्नातकोत्तर डिप्लोमा के समकक्ष समझा गया। अत: अध्ययन करते करते उन्होने एम. एड. पूरा कर अमेरिका से पी एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।
आपके हिन्दी व अँगरेज़ी में लगभग 40 आलेख प्रकाशित हो चुके है। आपकी एक हिन्दी पुस्तक “रॉकेट, उपग्रह और अंतरिक्ष” वैज्ञानिक जगत में बहुत चर्चित हुई। आपने ’साउथ एशिया टाइम्स’ द्वारा “आस्ट्रेलिया में समकालिन हिन्दी” दो भागों में प्रकाशित करवाई।
कुछ साथियों से मिल कर दिनेश जी ने यहाँ हिन्दी भाषा के प्रचार के लिये ’हिन्दी-निकेतन’ की स्थापना की तथा कुछ वर्षों तक अध्यक्ष पद संभाला। हिन्दी में 12 वी कक्षा के उत्तिर्ण छात्रों को पुरस्कार देने के लिये VCE हिन्दी एवार्ड फ़न्कशन की स्थापना भी की । श्रीमति सुधा जोशी के साथ मिल कर ’देवनागरी’ पत्रिका निकाली जो पैसों का अभाव होते हुये भी पांच वर्षों तक चली।
रेडियो प्रसारण से ले कर अनुवाद आदि सभी कार्य करने में दिनेश जी दिन भर जुटे रहते। अस्वस्थता के बावजूद आप हिन्दी भाषा के लिये सक्रिय और समर्पित रहे हैं। “साउथ एशिया टाइम्स” की हिन्दी-पूरक “हिदी –पुष्प” की आपने स्थापना की व संपादन कार्य भी कर रहे हैं। आपको 2009 में भारतीय विद्या भवन सिडनी द्वारा हिन्दी सेवा के लिये एवार्ड दिया गया और इसी वर्ष आपको “आस्ट्रेलियन ओफ द इयर” के लिये मनोनित किया गया। उनसे कुछ प्रश्नोत्तर :
विदेश में रहने वालों के लिये क्या आप हिन्दी-ज्ञान आवश्यक समझते हैं?
आवश्यक नहीं तो वांछनीय अवश्य मानता हूँ। इसके कई कारण है। हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने भाषाओँ में तीसरे स्थान पर है। यदि आप विश्व की जनसंख्या के एक बड़े भाग से सम्पर्क बनाये रखना चाहते है तो हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है। भारत की बढ़ती हुई आर्थिंक शक्ति को देखते हुए विश्व के अधिकांश देश, जिन में ऑस्ट्रेलिया भी शामिल है, भारत की आर्थिक समृद्धि का लाभ उठाना चाहते हैं। भारत के एक अरब से अधिक लोगों में से 40 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि आप उनके साथ व्यापार करना चाहते हैं तो हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत लाभप्रद होगा। स्मरणीय है कि भारत की केवल 11 प्रतिशत जनता अंग्रेजी बोलती है और अन्य सभी भाषाओँ के बोलने वालों की संख्या 8 प्रतिशत से भी कम है। हिन्दी बोलने वाले केवल भारत में ही नहीं सीमित हैं। इन सबसे सम्पर्क करने और व्यापार करने में हिन्दी का ज्ञान लाभप्रद होगा।
इसके अतिरिक्त सांस्कृतिक, साहित्यिक व अध्यात्मिक कारणों से भी हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है। हिन्दी फ़िल्में कई देशों में अहिन्दी भाषी लोगों के बीच भी लोकप्रिय हैं। भारतीय संगीत, नृत्य, चित्रकला, मूर्ति कला का उपयोगी है। हिन्दी साहित्य भी बहुत धनी है। इसके ज्ञान से वंचित रहना एक बड़ी संपत्ति से हाथ धोना है। अध्यात्मिक क्षेत्र में योग-ध्यान, मनन-चिंतन, भारतीय दर्शन, आयुर्वेद आदि में पश्चिम के विकसित देशों में जिस प्रकार लोकप्रिय हो रहा है, उसको देखते हुए भी, हिन्दी का ज्ञान वांछनीय है।
क्यों? जब कि भारत में ही हिन्दी को हेय द्रष्टि से देखा जाता है और अँगरेज़ी में बात करने में शान समझी जाती है तो आप प्रवासी भारतीयों से यह उम्मीद क्यों रखते हैं कि वे आपस में अपनी मातृभाषा में बातचीत करें?
यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के 61 वर्षों पश्चात भी हम अंग्रेजी की गुलामी नहीं भूल पाये हैं। गांधी जी, स्वयं एक गुजराती थे परंतु स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए आन्दोलन चलाया, जिस में अनेक अहिन्दी भाषियों ने उनका साथ दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने पर ज़ोर दिया क्योंकि वह जानते थे कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो देश को एक सूत्र में बाँध सकती है। ठीक ही कहा है यदि किसीके पिता दूसरा विवाह कर के सौतेली माँ ले आयें तो क्या वह अपनी असली माँ को भूल जायेगा?
विश्व भर में केवल भारत ही एक ऐसा देश होगा, जहाँ लोग अपनी मातृभाषा में बातचीत करने में अपनी तौहीन समझते हों। विदेशों में रहने वाले अधिकांश भारतीय अपने देश को नहीं भूल पाते हैं और अपने बच्चों में भारतीय संस्कृति बनाये रखना चाहते हैं परंतु वे भूल जाते हैं कि भाषा और संस्कृति का गहरा सम्बन्ध है। यदि वे अपनी संस्कृति बनाये रखना चाहते हैं तो उन्हें अपने बच्चों को अपनी मातृभाषा में शिक्षित करना होगा। इसके लिए पहला क़दम होगा अपने परिवार में तथा अपने मित्रों के साथ आपस में अपनी मातृभाषा में बातचीत करना।
यह धारणा भारतीयों में प्रचलित है कि अँगरेज़ी के ज्ञान से अपने व्यवसाय में आगे बड़ा जा सकता है और यहाँ के समाज में घुलमिल कर रहा जा सकता है। यही नहीं वे सोंचते हैं कि साहित्य में भी प्रतिभावान साहित्यकार क्यों न विक्रम सेठ और सलमान रशदी की तरह अंगरेज़ी में ही पारंगत हो कर इस भाषा में झंडे गाड़ें ? समझा जाता है कि प्रवासी कवि, लेखक और साहित्यकार विश्व की बात छोड़िये, भारत में भी प्रसिद्ध नहीं हो पाते।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, भारत में भारतीय भाषाओँ में तकनीकी शब्दों की शब्दावली बनाये जाने का काम शुरू हुआ था और कुछ शिक्षा संस्थाओं में इन भाषाओँ में अंग्रेजी ज्ञान को तरज़ीह दी जाती रही। विश्वविदयालय स्तर की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान इतना आवश्यक हो गया है कि हर वर्ष अंग्रेजी-ज्ञान की कमी के कारण कई मेधावी छात्र-छात्राओं के आत्म-हत्या करने के समाचार मिलते हैं।11 प्रतिशत अंग्रेजी भाषियों के लिए हम 40 प्रतिशत हिन्दी-भाषियों का बलिदान करने को तैयार हैं यह कैसी विडम्बना है? यह सर्वविदित तथ्य है कि विदेशी भाषा में शिक्षा प्रदान किये जाने के स्थान पर मातृभाषा द्वारा शिक्षा प्रदान किये जाने पर विद्यार्थीगण जल्दी सीखते हैं और मौलिकता का अधिक अच्छा विकास होता है। जो भारतीय अपने देश में रह कर जीवन-यापन करना चाहते हैं, उनके ऊपर अंग्रेजी थोपना कहाँ तक उचित है?
मुझे अंग्रेजी अथवा अन्य भाषाओँ के सीखने पर कोई आपत्ति नहीं है परंतु यह अपनी मातृभाषा के स्थान पर नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी-भाषी देशों में रहने वाले भारतीयों के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है परंतु इसके लिए उन्हें अपनी मातृभाषा का त्याग करना आवश्यक नहीं है। यह बात तो सभी जानते हैं कि विदेशी भाषा कि तुलना में मातृभाषा में विचार प्रकट करना अधिक आसान होता है और साहित्य में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक था। परंतु यदि किसी व्यक्ति में लेखन प्रतिभा है और अंग्रेजी पर अच्छा अधिकार है और वह सलमान रुश्दी या विक्रम सेठ बनना चाहता है तो उसे मेरी शुभकामनायें । हाँ यह ज़रूर याद रखें हर लेखक शीर्ष स्थान पर पहुँचने के सपने तो देख सकता है पर वहाँ पहुंचना सबके बस कि बात नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि ‘आधी छोड़ पूरी पर धावे, आधी मिले न पूरी पावे’। एक बात और नोट करने लायक है, जिन लेखकों का आपने ज़िक्र किया है, वे अंग्रेजी भाषी देशों में लंबे समय से रह रहे हैं। ऐसी स्थिति में बहुधा दैनिक जीवन में अपनी मातृभाषा के प्रयोग न किये जाने के कारण ऐसे लोगों की दक्षता अपनी भाषा में घट जाती है।
प्रवासी हिन्दी-लेखकों की बात करें तो अब इंटरनेट से स्थीति बदल रही है । साथ ही भारत से बाहर के लेखक अपनी पुस्तकें भारत में ही छपवाते हैं अत: प्रवासी लेखकों को अनदेखा करना संभव नहीं है।
आपको हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये किन किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?
हिन्दी के प्रचार-प्रसार में मुझे दो कठिनाइयों का विशेष रूप से सामना करना पड़ा। एक तो संसाधनों और हिन्दी-सेवक कार्यकर्ताओं की कमी और दूसरी ऑस्ट्रेलिया में बसे अधिकांश भारतीयों की हिन्दी के प्रति अनास्था। ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले अधिकांश भारतीय यह सोचते हैं कि इस अंग्रेजी भाषी देश में अंग्रेजी के अतिरिक्त कोई और भाषा सीखने की कोई आवश्यकता नहीं है और सीखना भी हो तो फ़्रेंच या जर्मन सीखो, हिन्दी सीखने से क्या फ़ायदा? 1971 में जब मैं ऑस्ट्रेलिया आया तो पहले एक-दो वर्ष तो मैं हिन्दी की एक भी पुस्तक देखने को तरस गया। उसके बाद मुझे ऐसा लगा जैसे बहुत दिनों के प्यासे को पानी मिल गया हो। ‘सेंट अल्बांस’ पुस्तकालय में हिन्दी संग्रह की शुरुआत की गयी। पुस्तकालय भी कुछ हिन्दी पुस्तकें और पत्रिकाएँ मंगाने लगा। परंतु जब भारतीयों ने उन पुस्तकों का उपयोग ही नहीं किया तो कुछ समय पश्चात, स्थान की कमी के कारण वे पुस्तकें, बाहर फेंक दी गयीं। बाद में कुछ हिन्दी-प्रेमियों के साथ ‘हिन्दी-निकेतन’ की स्थापना की और ‘कोबर्ग-पुस्तकालय’ में हिन्दी संग्रह स्थापित किया गया। परंतु वहाँ भी पुस्तकों के अनुपयोग की समस्या आई और मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास दो-दो डालर में बेच दिए गये। गनीमत है कि वहाँ पहले से छोटा ही सही, परंतु हिन्दी-संग्रह विद्यमान है।
जब मैं ऑस्ट्रेलिया आया तो यहाँ बच्चों को हिन्दी सिखाने का कोई प्रबंध नहीं था। अपने बच्चों को तो मैं दिल्ली के ‘केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय’ के पत्राचार कार्यक्रम द्वारा शिक्षा दिलवाई परंतु यह कार्यक्रम भारत के अहिन्दी वयस्क सरकारी अधिकारियों के लिए तैयार किया गया था और बच्चों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं था। इसलिए मैंने विक्टोरिया की सरकार से माँग की कि बच्चों को हिन्दी सिखाने का प्रबंध किया जाए। कई वर्षों के परिश्रम के पश्चात 1986 में पहली बार विक्टोरिया में पहली हिन्दी कक्षा ब्रंज्विक में खोली गई। पर हर वर्ष यही डर लगा रहता था कि कहीं विद्यार्थियों कि संख्या कम होने के कारण कक्षा बंद न हो जाए और एकाध बार ऐसा हुआ भी जब हिन्दी अध्यापक स्वर्गीय डॉ रमा शंकर पाण्डेय जी मुझे बताया कि प्रधानाध्यापक ने विद्यार्थियों कि संख्या कम हो जाने के कारण हिन्दी कक्षा बंद हो जाने का आदेश दिया है।
ऐसी स्थिति में हमें प्रधानाध्यापक से हिन्दी कक्षा खुली रहने की अपील करनी पड़ती थी और नए विद्यार्थीगण ढूँढ कर लाने पड़ते थे जिसके लिए हम लोग होली-दीवाली अदि उत्सवों पर स्टाल लगा कर लोगों को हिन्दी कक्षा के बारे में बताते थे और विद्यार्थियों के माता-पिताओं से अनुरोध करते थे कि वे अपने बच्चों को हिन्दी कक्षा में पढ़ने के लिये भेजें। लगभग दस वर्षों के सतत प्रयत्नों के पश्चात, हिन्दी को पहली बार 1993 में 11 वीं तथा 12 वीं कक्षाओं में एक विषय के रूप में मान्यता प्रदान की गयी। इसके पश्चात, हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि होती गयी और 2012 में आज विक्टोरिया में हिन्दी-शिक्षा के आठ केन्द्र चल रहे हैं। 2012 ऑस्ट्रेलिया की केन्द्रीय सरकार ने हिन्दी को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने की स्वीकृति दे दी है- यह बहुत प्रसन्नता की बात है परंतु पूरे राष्ट्र के लिये प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालयों के लिये हिन्दी का पाठ्यक्रम व पाठ्यसामग्री तैयार करना, हिन्दी-शिक्षकों का प्रशिक्षण जैसी अनेक समस्याएँ हैं जिन से अभी निबटना बाकी है।
1990 के दशक में, दो वर्ष मैंने एस.बी.एस. रेडियो द्वारा प्रसारित हिन्दी कार्यक्रम के संयोजन का भार भी सम्भाला। उस समय हिन्दी कार्यक्रम केवल आधे घंटे का बृहस्पतिवार को हुआ करता था। जया शर्मा मेरी सहयोगी थीं। हम लोगों ने मिल कर काफ़ी कोशिश की इस कार्यक्रम का समय बढ़ाया जाए और इस कार्यक्रम को अधिकतम लोगों तक पहुँचाया जाये। प्रसन्नता की बात है कि यह कार्यक्रम अब राष्ट्रीय स्तर पर सप्ताह में तीन दिन प्रसारित होता है और एस.बी.एस. टेलिविज़न पर भारत के एन.डी.टी.वी. द्वारा प्रसारित हिन्दी समाचार भी देखे जा सकते हैं।
संक्षेप में, हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बहुत कठिनाइयाँ आती रही हैं परंतु उपलब्धियाँ भी कम नहीं हैं। आवश्यकता है अपने उद्देश्य पर डटे रहने की। हाल में भारत से आ कर ऑस्ट्रेलिया बसने वाले लोगों में काफ़ी वृद्धि हुई है परंतु उसके अनुपात में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में बहुत कम वृद्धि हुई है। इन लोगों को हिन्दी के महत्व के बारे में समझाना आवश्यक तो है पर आसान नहीं है।
2012 में विक्टोरिया की एक प्राथमिक पाठशाला ने अपने स्कूल के सभी 350 विद्यार्थियों को हिन्दी सिखाने का निश्चय किया है। अभी तक स्कूली स्तर पर यहाँ हिन्दी पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी भारतीय मूल के रहे हैं। ऑस्ट्रेलियाई विद्यार्थियों को जिनकी मातृभाषा अंग्रेजी अथवा अन्य कोई भाषा है –नई कठिनाइयाँ तथा चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है।
हरिहर झा मेलबोर्न, आस्ट्रेलिया
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